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संसद पर हमले के मामले में मौत की सजा पाए अफजल गुरू को फांसी कब मिलेगी, यह सवाल आज सब को साल रहा है. क्यों नहीं हुई यह भी अनुत्तरित है. हर कोई इसका जवाब ढूढने की कोशिश कर रहा है. जिम्मेदार लोग एक दूसरे पर दोष मढ़ रहे है. जैसा की ७ जून को सीला दीक्षित ने दिल्ली सरकार की भूमिका को साफ करने की कोशिश की. फिर वही बात हो गयी और धीरे से पाटिल का नाम ले दिया गया. ये लोग सरकार है इनका कोई कुछ बिगाढ़ नहीं सकता, जनता को कोई जवाब भी नहीं देना है. केवल बहका देना है. बहाना बना देना है. सरकार बनी रहेगी, मरनेवाला मरने के इन्तजार में रोज मरता रहेगा.
बेचारा अफजल रोज मर रहा है, रोज जी रहा है. भला किसी को फांसी की सजा सुना दी जाए और फिर फांसी टरका दी जाए. आप सोचिये उस जेल के अन्दर कौन सा सुख होगा जिससे वह खुश होगा, उसका तो मरना ही अच्छा. कोठारी की जिन्दगी कितनी ही सुखमय क्यों न हो भला कैसी होगी यह आप सोंच कर देखिये. मैंने देखा है कैदियों की पेशी के वख्त उनके आँखों में दुनिया देखने की ललक. फिर भला यह बेचारा अफजल को कैसा लग रहा होगा. असली अपराधी तो वे है जो उसे रोज मर रहे है. न तो जीने ही दे रहे है न ही मरने ही दे रहे है. वह रे देश के आको, कैसी तुम्हारी फितरत है?
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