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देखो अव्वल तो हम कुछ लिखना ही नहीं जानते, बल्कि देख-देख कर हम सब कुछ शीखने व कुछ करने की लालसा ने ही ऐसा कुछ उत्साह दिया और हमने लिखा जो बन पड़ा. अपना तो एक छोटा सा सिधांत है भैया कुछ करते रहो कभी न कभी परिणाम तो मिलेगा ही, मिलता भी है. सोचा करता हूँ कैसे अच्छा लिखू तो लगता है आज जब कुछ अच्छा है ही नहीं तो क्या लिखू. कितना बेबस सा दीखता हूँ जब कुछ लिखता हूँ खुद को सीसे में भी देखता हूँ, मई कैसा लगता हूँ. जो कुछ दीखता है वह मेरी समझ से परे है. दूसरो से पूछता हूँ, क्या कुछ दीखता है ? तो उन्हें तो भाई दीखता है, पर मुझे क्यों नहीं दीखता है, तब परिणाम निकलता है आज की कालिमा में मेरा भी चेहरा कला पद गया है इसलिए कुछ नहीं दीखता है.
चारो तरफ लूट दिख रही है, दामनगी दिख रही है, लोग एक रुपये के लिए इन्सान को मिटा रहे है, इन्सान को इन्सान नहीं पैसा दिख रहा है. हर कोई लुट रहा है. जो लूट रहा है उसे उससे बड़ा वाला लूट रहा है. मेरे पास कुछ नहीं सिवा खाने-बनाने व सोने के कम चलाऊ कपड़ो के अतिरिक्त. न तो मई लूट प् रहा हूँ, तो कुछ कर नहीं पा रहा हूँ. मेरे पास कुछ है नहीं तो लुट भी नहीं पा रहा हूँ. यहाँ भी मै बेबस हो गया हूँ, समाज से बहार हो गया हूँ, कभी-कभी मै उन कालेजो के पास से गुजरता हूँ तो उनकी दी शिक्षा पर शक होने लगता है. अपनी पढाई पर शक होने लगता है. अपने को दूसरो के समकक्ष बिलकुल बेबस से लगता हूँ.
हम पढ़ कर भी कुछ न बन सके, दूसरे बिना पढ़े न जाने क्या-क्या बन गए. कभी सर झुका कर चलते थे वे आज सर पर ताज रख कर चल रहे है. हमरे पास कुछ न बन पाने की भी बेबसी है. अब देखिये न किसी प्रकार एक अच्छा सा ब्लॉग भी नहीं बन पड़ा तो भी मै बेबस सा दूसरो के तरफ देखता रहता हूँ. मै आदमी को मानने वाला व्यक्ति हूँ, साफ सी बात है लोगो का भगवान मुझसे नाराज होगा इसीलिए शायद कुछ नहीं हो पा रहा. पर मै हूँ तो मान नहीं पा रहा इन लोगो की गढ़ी गयी कहानी को और कहानी के पात्रो को. इन्हें न मानने की भी बेबसी है. कुल मिलाकर मै बेबसी की जन्दगी जी रहा हूँ.
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