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विधायिका हो या न्यायपालिका कोई भी दूध का धुला तो नहीं है. पुकार के साथ ही सुरु हो जाता है लूटने का सिलसिला. विधायक भी तो इसी लिए बनते है रातो-रात धन से परिपूर्ण होने के लिए, न की देश सेवा या फिर जन सेवा के लिए. आज हर तबके का आदमी जो जहा है आम आदमी या उसकी योजनाओ को लूट रहा है. आज लोग कचेहरियो में कहते मिल जायेगे, दलाली करते मिल जायेगे और जीत करवा देने के दावे के साथ न्याय का सौदा करते मिल कयेगे. विधायिका क जन्म तो लूटने के लिए ही हुआ है. सभी का कपड़ा सफ़ेद है और सभी लूट रहे है. एक दूसरे में हस्तक्षेप भी बर्दास्त नहीं कर रहे है.
विधायिका का गलत उपयोग न हो, किसी कानून का कोई दुरूपयोग न हो उस मामलो पर विधायिका का निर्णय तो अच्छा लगता है न की कभी- कभी वेवजह कार्य को रोक कर व्यधन पर दयां नहीं दिया जाता है. न जाने कितने आदेशो के कारन ही उत्तर प्रदेश के शिक्षा जगत की परिक्षये आज तक कानून के आदेश पर हो रही है. जन- जन को विस्वास हो गया है न्याय उसी को मिल सकता है जहाँ पर पैसा है. न जाने कितने अपराधी न्यायलय की साथ-गाथ से ही दफ़न हो गए कोई सुध लेने वाला ही नहीं है. अब तो अपराधी को पुलिस भी न पकड़ कर बिचवानी का रोल अदा कर केश कम कर रही है. इस सब प्रक्रया के दौरान मुदई को धमकाया जाता है और डराया जाता है, अंत में विजय अपराधी की ही होती है. मुदई भी समझ जाता है जब पुलिस गिरफ्तार करने के बजे समझौता करा रही है तो भला हम क्या बिगाड़ सकेगे. विधायक हो या फिर अन्य राजनीतिक सभी की सलाह पर ही क्षेत्रीय पुलिस कार्य करती है. यह तो सभी जानते है और सभी भुगतते है. यदि सत्ता पक्ष के विधायक है तो पूरा का पूरा थाना ही विधायिका के अनुसार चलता है.
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