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देखो कैसा दौर चला
पीढ़ियों दर पीढ़ियों के रिवाज को
अब के नए ज़माने ख़ारिज कर दिया,
और तो और राजा पर ही ऊँगली उठा दिया.
राजा तो राजा होता था
वह प्रजा के लिए जीता-मरता था,
प्रजा भी राजा को भगवन मान
पूजती और संजोती थी,
रक्षा करने को अपना जीवन
समर्पण करती थी.
तब राजा ही तो था
जो प्रजा का सच्चा साथी होता था,
उसके सुख- दुःख को अपना समझ
खजाने को राज्यहित में प्रयुक्त
करने को अपना कर्तव्य समझता था.
एक यह कलयुगी राजा
जनता के ही खजाने को लूटने के
जनहित में उपाय कर
जनता के दुखों को नजरंदाज किया,
केवल अपने निजी स्वार्थ को
भ्रष्टाचार का व्यापार किया.
एक बार हो, दो बार हो,
जनता ने नजरंदाज किया,
भला हो उन लोगो का जिसने
भी इस खेल को तमाम किया.
लेकिन यह तो इंडिया है
यहाँ तो सभी में बहुत यारी है,
फसने से पहले ही निकलने की तैयारी है.
यहाँ कुछ होता नहीं,
बस कुछ दिनों की ही तो बात होती है,
सब ऐसे ही खेल-खेल में बरी होता है.
यहाँ न्याय उचित है, कानून अच्छा है,
यही बुरा है जो बुरों की इच्छा है,
उनको कानून नहीं
बस कुछ दिन का राजनीतिक रिश्ता है.
बुरा भी क्यों हो उसके साथ
न्याय तो वही करता है
उसका क्या होगा,
वह तो खु ही राजा है.
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