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एक द्रश्य!
साम हो चली थी,
चहरे पहचान में नहीं थे,
सामने कोई बीमार पड़ा है,
मक्खिया भिनभिना रही है,
मुंह फूला हुआ है,
अस्पष्ट आवाज आ ररही है,
पानी, पानी, पानी.
बगल में कड़ी एक नौयवना
मुस्करा रही है, ख्लिखिला रही है,
उसके आस-पास मक्खिया नहीं
भौरे फेरे दर फेरे लगा रहे है,
एक मुस्कान के लिए मरे जा रहे है,
कोई इशारे से कोल्ड तो कोई
कुछ न कुछ आफर कर रहा है,
बगल में पड़ा वह व्यक्ति
फिर पानी-पानी बडबडा रहा है,
हिकारत से देख यह नौयवना
फिर से फिकरो में दह जाती है,
भौरे भी न समझ पाए
पानी उस बीर को या
इस नौयवना को पिलाये.
नौयवना भी अपने को जता रही है,
एक भौरे से मिल गयी जो आँख
उससे मुस्करा रही है,
बात बनी, रात कटी,
गलबहियो में.
वही उसी जगह लौटे
सुबह हो चली थी,
भीड़ बड़ी थी,
कोई कुछ कह रहा था कोई कुछ,
कोई नशे का मारा तो
कोई दौरे का मारा,
हर कोई कुछ न कुछ बता रहा था.
एक यही दो थे जो समझ सके
एक मानव पानी बिना
इस संसार से जा रहा था.
यही नियत है, मान
दोनों कुछ पल खड़े रहे,
झंझट से दूर, बवंडर से दूर,
अचानक
जाने क्या सूझा,
युवक ने उस मृत शरीर को देखा
चकरा गया, करह उठा, चिल्ला उठा
यह मैंने क्या किया बापू,
पानी तो तुझे पिलाना था मुझे,
मै किसे पिला गया.
पास कड़ी नौयवना ने अचानक
रुख पलता. छोडो भी अब,
जिसे जाना था, वह चला गया
मातम से क्या फायदा,
करो मुझसे एक नया वायदा.
युवक सचेत था, दिल से अचेत था,
कुछ लोगो को बुलाया,
फिर अपने बापू की अर्थी को घर लाया.
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