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ये चुनाव, ये जनता, ये नेता…. किसे क्या कहें ?
हर तरफ लोग कराह रहे, है हाहाकार,
मानव, मानव का ही कर रहा संहार,
कैसा और कहाँ है प्रजातंत्र,
अराजकता और राजशाही का बोलबाला,
नहीं कानून, बस है अत्याचार,
ठोकर खा रहा सच्चा और इमानदार,
चारो तरफ फल फूल रहा भ्रष्टाचार.
कोई तो बताये यहाँ आमजन कैसे जिए, कैसे रहे?
ये चुनाव, ये जनता, ये नेता…. किसे क्या कहें ?
कुछ लोगो ने जन-जन को जगाया था,
मानव से मानव में प्रेम बढाया था.
देश के समझ में आया था,
प्रजातंत्र का चढ़ा था बुखार,
वोट पड़े जैसे हो बहार,
ना था कोई मुद्दा, ना महाद्दा,
वही सिपाही प्रजातंत्र के, रहे दहाड़.
हर तरफ शोर था, भ्रष्टाचारियो का जोर था.
इन्होने मानव को भी ना छोड़ा,
गद्दी के लालच में इंसान को,
कच्चे कांच जैसा तोडा.
जाती का, धर्म का, और धन का नाता जोड़ा.
भूल गयी ये जनता, गमो को, जुल्मो को,
हो गयी उन्ही की, जो अब तक भूत रहे?
ये चुनाव, ये जनता, ये नेता…. किसे क्या कहें ?
किसे कहगे, जब ये सब ऐसे ही बहेगे,
समझ नहीं पड़ता, ये जुल्म कब तक सहेगे.
मौका था, तब भी जन मानस ने दर्द नहीं कहे?
ये चुनाव, ये जनता, ये नेता…. किसे क्या कहें ?
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